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नारियों के सृजन की,स्वतंत्रता, स्वाभिमान की है।

kaushal vichar
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हुक्मरानों का ह्रदय जो काठ है, और वो हैं कैद पत्थरो के महल में,

उनकी देहरी पर अब सर पटकना छोड़ दो।

दिल्ली आज भी ऊँचा सुनती है,रक्तरंजित तलवारों की भाषा,

और घोड़े हाथियों से रौंदा जो गया हो अनगिनत ,

है इतिहास इस दिल्ली का यही,

तो इसके प्रिय  इतिहास से लड़ना छोड़ दोI

नव विहान की बेला,और दुःख की काली घटायें,

जार-जार अंतर-मन और अश्रुं से लाली अखायें।

दग्ध ह्रदय की ज्वाला,दावानल जो बन चली है।

ताप में संताप सबका,एकलय से खल बली  है।

क्रूर विद्रूप काल , जो ले गया,सारे ह्रदय को तोड़कर ,

अखिल विश्व आज जागा सारी बिफलता छोड़कर।

अब लड़ाई न्याय की, न ,न, ही, ये सम्मान की है।

नारियों के सृजन की,स्वतंत्रता, स्वाभिमान की है।

अंत तो बस तभी होगा,जब दिल्ली बदल जाएगी,

खुद बदलेगी या फिर बाद में पक्षतायेगी।

विजय कुमार कौशल

 

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