kaushal vichar
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हुक्मरानों को खबर क्या,
की मेरे चूल्हे पर मेरी लोहे की कढाई,
अब चढती नहीं.
क्योंकि उसे भी आलू,
प्याज के भाव का अंदाजा है.
मेरे हाथों की छाले,
मगर ठट्टे मार के अब हँसते हैं.
क्योकिं अब आदमी का,
भाव ही सादा है.
बचपन में मेरी माँ,
अक्सर चूल्हे पर,
आलू और प्याज की,
ही सब्जी पकाती थीं.
और उसकी सोंधी खुसबू,
और मोटी रोटी.
मेरे बचपन को,
जवान बनाती थीं.
आज घर में चूल्हे नहीं,
न आंसू माँ के आखों में,
मगर आलू ,प्याज,
लहसुन,और टमाटर के बढ़ते भाव,
रोज हम सबको रूलातें हैं.
और सरकार को फर्क कहाँ पड़ता है.
हम हैं आम-जनता यूँ ही चिल्लाते हैं.
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