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यह कविता मयंक जी की प्रभावशाली बंदेमातरम-चालीसा को समर्पित है.
बन्दे……………………………मातरम!
यह कविता नहीं चालीसा है, भारत माँ का गुणगान है.
ये तथाकथित सेकुलर क्या समझे,मेरा भारत महान है.
जो दूजे देश की संस्कृति,
को अपना समझ अपनाते हैं.
जो अपनी माँ को भूल चुके,
दूजे को माँ,माँ चिल्लाते हैं.
ये हैं पड़वा ,दिल के काले,
खींचे लकीर ,मजहबी दीवारें.
इनको किससे क्या मतलब है,
जन-गण तो बस वोटर सारे.
जो फिलिस्तीन ,और इराक के खातिर,शेम-शेम चिल्लाते हैं.
सिखों को जब पाक में मारा जाता है,तो पल्लू में छुप जाते हैं.
ये कैसा दोहरा मापदंड,
क्या हिन्दू होना पाप है.
क्या सिख -इसाई नहीं वोटर हैं,
क्या हिंदुस्तान अभिशाप है.
मुस्लिम -मुस्लिम रटते रहते,
हिन्दू-मुस्लिम को खींच रहे.
गीता-कुरान की धरती को,
वोटों के खातिर नीच रहें.
सदियों से रहते आयें हम सब,हिन्दू-मुस्लिम-सिख-इसाई.
क्यूं सत्ता के खातिर, हम सबमे करवाते हो लड़ाई.
क्या बंदेमातरम केवल ,
हिन्दू ही गाता था.
क्या ५७ की लड़ाई में.
मुस्लिम यह न,चिल्लाता था.
अब आज तुम्हे बंदेमातरम में ,
साम्प्रदायिकता नजर आती है.
माँ की जय-जय में भी,
अब राजनीति चढ़ जाती है.
कब तक ,कब तक धर्म ,मजहब पर हम सब को भड़काओगे.
क्या आजादी की दूसरी लड़ाई लड़वाओगे.
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