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जन्म की कड़ी में,
देहरी पर खड़ी,
और बाहर,
इंतजार की,घड़ी-घड़ी.
किलकारी आई,
पहचान का संकट आया.
अपना और अपनी,
से ममत्व भी है ललचाया.
आज कैसी है विडम्बना,
रिश्तों और नातो में,
का,की,के स्वर में,
छिप रहे, बातों में.
थाली बजेगी नहीं,
झूठी मुस्कान है,
अपनी फिर आई है.
मुस्किल में जान है.
बेटो- और बेटियों में अंतर,
हम नहीं करते,
किताब में लिखा है.
पर बेटी के पैदा होते ही,
जो दर्द ओठों पर तैर जाते हैं.
उसे कहाँ सीखा है.
आज भी बेटी का जन्म
बहुत कम के ओठों पर,
सच्ची मुस्कान बन तैरता है.
बाकि के मन में,
तूफान बन फैलता है.
हे मेरी! बेटियों
आज रक्षाबंधन है,
अपने भाईयों के कलाई पर राखी बांधते वक्त,
किसी उपहार को मत करना स्वीकार ,उनसे बस एक प्रण लेना की.
आने वाले वक्त में,बेटियों के लिए उनके मन में,
ओठों पर,उनके हृदय में हो सच्चा प्यार.
अपना-अपनी का अंतर ख़त्म हो जाये.
बेटी-और बेटों का हो सुखी संसार.
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