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जागरण junction ने बीते महीनो से अपने विचार जन-मानस के पटल पर अंकित करने का जो सुअवसर दिया. उसकी प्रसंसा शब्दों से परे है.
मै यह नहीं जानता हूँ की १५ जून के बाद इस plateform का क्या होगा लेकिन इतना जरूर जानता हूँ की हिंदी ब्लॉगिंग में यह एक मील का पत्थर साबित हो चुका है. मेरे मन जो सबसे ज्यादा पीड़ा है वह किसान और भारत के गावों की दुर्दशा से रही है,प्रस्तुत रचना उसी ,अन्नदाता,अन्न्देव,अन्नपूर्ण और उसके गावों की दशा को रेखांकित करती हुए ,युवाओं और लोगों का आवाहन भी करती है.
प्रस्तुत रचना में मैंने गाँव को इस देश की धमनी की भी संज्ञा दी है. यह जरूर है की बीते वर्षों में किसानो के ऋण माफ़ी योजना ने उनके आत्मबल और पौरष में एक नई चेतना का संचार किया है. लेकिन जिस तरह कृषि का जी.डी.पी में योगदान दिन प्रतिदिन गिरता जा रह है वह भी आने वाले दिनों में एक अति चिंता का कारक है. इन सब मुसीबतों के बीच में भी गुजरात ने जिस तरह कृषि के विकास में एक नया मोडल प्रस्तुत किया है वह भी अन्य प्रदेशो के लिए सोचनीय है.
हे! भारत माँ ,तेरा शरीर,
जो सत्तर-प्रतिशत है,ग्रामीण.
बसते हैं,जिसमे ग्राम-देव,
अन्नदेव,भारतीय प्रवीण.
सुधि नहीं जिन्हें,अपने निधि का,
जीवन-सारिथि,धरती-सुत का.
अपमान उन्ही का होता रहा,
उस अन्नदेव-जीवन-पुट का.
जीवन के विकसित वैभव में,
ये कृषि-पुत्र सम्मानित हैं.
पर अब हैं,किंचित,विचलित,
कृषि से घोर अपमानित हैं.
जैसे ये वृक्षादित पर्वत,
अब नंग-निहंग हैं,चट्टानी.
जैसे हिचकोले भरती नदियाँ,
अब सूख रही,रेगिस्तानी.
जैसे इक,तिथि,नक्षत्र पे,
घुमड़-घुमड़,बादल आये,
अब ज्योतिष फेल हो रहा.
जब सूखा आँखे मटकाए.
जैसे खपरीली छतों पे,
कौवा भी बांग लगाता था.
नीम-के-दातुनो से,
दांतों को मांजा जाता था.
जब खेतों के मेड़ों पर,
बैलों की घंटी गुनगुनाती थी.
सखियों के पैरों की पायल,
छम-छम,रहट बन जाती थी.
जब गेंहू ने दी होली,
चावल ने मनाई दीवाली.
सब त्योहारों का जन्म हुआ,
खेतों में थी जब हरियाली.
माना की विकसित होना,
इस जीवन की नव-धारा है.
पर उस जीवन का क्या होगा,
जो अन्नपूर्णा,सर्वहारा है.
कृषि और उद्योग,सदा,
दो जिस्म मगर इक जान हैं.
पर उद्योगों की आंधी में,
क्यों सूखते कृषि के प्राण हैं.
उड़ती है धूल खेतो में,
वीरानी गावों की गलियां हैं.
डगरे भी हैं उजड़ी-उजड़ी,
तालाबों में नहीं मछलियाँ हैं.
कुछ अंधाधुंध विकासों ने,
कुछ जीवन के कटु विश्वासों ने.
कुछ स्वार्थ,धन की लोलुपता,
कुछ ठगे गए प्रयासों ने.
ये जो फैली है,मंहगाई,
भूख,बेकारी,लाचारी.
मौसम-चक्र भी बदला,
घुटती है जनता सारी.
जो शब्दों से थे,अनभिज्ञ,
वो,शब्द-लुटेरे शायर हैं.
हे देश! तेरी धमनी सूख रही,
हम कायर हैं! हम कायर हैं!
हे! लोकतंत्र,हे! युवातंत्र ,
बढ़ थाम,राजतन्त्र की डोर.
जन-गन-मन के मंगलमय हित,
चलों गाँव की ओर!
चलो गाँव की ओर!
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