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आप-लोगों की प्यार और आशीर्वाद के कारण पुनः श्रिंगार-रस ,में विरह-वेदना को समेटे हुए यह रचना प्रस्तुत है. इस कविता को जैसे मैंने नहीं लिखा क्यूं की आज-रात को करीब ३.०० बजे जब पानी बरसने के कारण मेरी आँख खुली तो मन में इस कविता के शब्द-पता नहीं कहाँ से बुद-बुदाने लगे. शायद यह जागरण-junction के प्रति अति समर्पण है या आप लोगों का अति प्यार.:::::::::::::::::
“वफ़ा में फूल जो,जिस साख पे खिलें,
हँसते-हँसते ,उसी साख पर मुरझाएं.
बेवफा ,तो ये कमबख्त आंसू हैं,
जरा सा दर्द हुआ,छल से टपक आयें.
निगहबानी में ये,गुलाबों के कांटें है,
जीवन भर संग रहें,फिर भी उसे न छू पायें.
प्यास सबसे बड़ी है, चातक की,
बस इक रोहणी के खातिर,प्यासा मर जाएँ.”
न वफ़ा,वेवफा,निगहबान न प्यासा.
थोड़ा हूँ इश्क का मारा,तेरा प्यार है आशा.
मुझे हमदर्द मिलें,यूँ तो बहुत,अंधेरों की तरह.
जरा सी सुबह हुई,सूर्य खिला,भाग जाते हैं.
इससे पहले भी आजमाया गया हूँ ,दरे-व-दर,
मगर हिस्से में केवल ठोकरों के भाग आते हैं.
मेरे दर्द को समझेगा क्या ,ये जालिम जमाना.
जिसने मेरे घाव को सींचा,और हंसी उड़ाई है.
वो जालिम मेरे दर्द को,कैसे पहचान सकते थे,
जिनके पैरों में अब-तक ,न फटी बिवाईं है.
तू मेरी आखरी मंजिल,तू मेरा आखरी रब है,
तू ही मेरा,हकीब-तबीब,तू ही मेरा सब है.
तू मेरी आँख में भरजा,स्वप्न बन के समाजा.
ये खुदा मेरी इस नींद की इन्तहां न हो.
मुझे दोजख मिले,जन्नत,इसकी फ़िक्र नहीं है.
बस,इस नींद की अब सुबह न हो!!!!!!!!!!!!!
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