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आप सब को मेरी रचनाये पढने और प्रतिक्रिया देने हेतु कोटि-कोटि साधुवाद! अब तक मैंने २०० से अधिक कवितायेँ ,विभिन्न विन्दुओं को ध्यान में रखकर लिखी है.
करीब-करीब सभी रसों में इनका सृजन हुआ है. केवल एक ऐसा रस है जिसमे मैंने केवल अभी तक दो कविता ही लिखी है . वह है श्रृंगार-रस.
तो लीजिये प्रस्तुत है दूसरी कविता. श्रृंगार रस में ही. आपकी प्रतिक्रिया हमारे सृजन-कलम में स्याही का काम करेगी:
गुलाब की पंखुड़ियों से ज्यादा चटक,तेरी शर्मो हया!
कमल-पराग से बढ़ कोमल,तेरे चेहरे की लुनाई है!!
चारू-चन्द्र सी चमके,तेरी दंतिया,वाह! दंतिया!!!
तिरछी चितवन से आज,हिरनी भी शरमाई है!!!!
जो ये संगमरमर वदन,जो ये संगमरमर वदन,
ऊपर वाले ने किया है, बड़ा जतन,किया है बड़ा जतन.
जैसे सुनार की टिक-टिक से,सोना गढ़ता है.
जैसे कोयले की चिक-चिक से,हीरा ढलता है.
जैसे दही-विलोपन से,निकले नैनू -मक्खन.
वैसे गढ़ा तेरा तन,वैसे गढ़ा तेरा मन,
जो ये संगमरमर वदन,जो ये संगमरमर वदन.
जो ये लट हैं,या घिरे ,श्यामल-श्यामल ,बादल,
हंसें तो चमके बिजली ,बाढ़ कहीं आ जाये.
पैरों की स्पंदन या सप्त-सुरों का मंचन.
चले बल खाके ,कहीं फूल खिले,मुस्काए.
किरण सी चंचल,शीतल तू है ,चन्दन.
जो ये संगमरमर वदन,जो ये संगमरमर वदन.
सौन्दर्य की मूर्ति ,जो अमुर्ति है ,उपमेय,
तुलना करो न ,यह शब्दों से नहीं,बंध्येय,
किसी कलाकार के सारे रंगों की,रंगेये,
सभी छंदों की रानी,अप्रतिम छंद्येय.
तुझको छूना नहीं, ढूध सा ,तेरा तन-मन.
जो ये संगमरमर वदन,जो ये संगमरमर वदन.
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