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आंसू
बचपन में छलकते
मोती जैसे कोमल-सोमल गालों से अधरों पे उतरते
माँ ने देखा दौड़कर आई
सीने से लगाया ,दूध पिलाया,पुच्काया भी
आंसू माँ को नहीं सुहाते बच्चों की आँखों में .
तरुराई में बड़े हो गए दृग,अधर
कोमल-सोमल गाल दृढ भी हुए मगर
आंसू अब भी आते है कभी-कभी
पर चुपके -चुपके पोंछे जाते हैं
छुपकर,रूककर,देखे जाते हैं काँखों से.
अब भी मन करता है
सीने से लगकर ,भगकर
अन्दर घुमड़ते ,लड़ते तुफानो को बहा दूं
आँखों से सावन छलके और दिल दहला दूं
क्योंकि ये अब बड़े दृग और दृढ गालों में
आंसू छिप जाते जीवन के जंजालों में
यूँ तो जल को सुखा वाष्प बन
बादल बन बरसाना है
मगर ये आंसू वाष्प बने
तो जीवन को झुलसाना है
हे माँ तू ही तो है किनारा
वात्सल्य -रस ही मेरा सहारा
मेरे-जीवन मरू में आसूं नमक बन गए
मगर तेरे वात्सल्य -नीरद कहाँ खो गए
आजा माँ फिर आजा माँ
बदरी बन तू बरसा कर
आसूं मेरे सब धुल जाये.
फिर न मन मेरा तरसा कर.
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