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खाप-शाप के भाले फेंकों.!

kaushal vichar
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चाँद ,शुचि दूर गगन में चमके पाक-धवल.
इक चाँद भी चमक रहा है देखो मेरे बगल.
किस चाँद को चाँद कहूं अब तो रहा न जाय.
चांदनी की शीतलता मुझसे सहा न जाय.
इस चौखट से उस चौखट तक खिड़की-खिड़की,
पैरों की थापों,कंगनों से किवाड़ी खडकी.
इक-इक चाप मेरे मन में यूँ बस जाता है.
इक-इक थाप मेरे दिल को सहलाता है.
काश मेरा चाँद भी यूँ शाम ढले आता होता.
शुक्ल-पक्ष में उत्सव होता,कृष्ण-पक्ष में सो जाता.
इन चांदों से सजी हुई बजारे सबको भाती हैं.
मगर चाँद की बेचारगी हाय! कहाँ छिप जाती है.
जो चम्-चम् चम्-चम् चमक रहा ,अन्दर क्या है.
शीतलता की सुवास का दर्द छिपा है.
धोखा कभी चाँद नहीं देता है जानो.
उसकी फितरत में है चांदनी ,पहचानो.
राहू कभी -कभी आते थे सालों में.
घर-घर में आज राहू हैं ,पालों में.
पहचान का संकट अब है चांदों को.
सारे राहू छिपे हुए हैं मांदों में.
फ़तवा ,नियम ,कायदे देखो,
खाप-शाप के भाले फेंकों.
अगर कर सको तो जागो कुछ करो मगर
वरना दूर क्षितिज में ही चंदा होगा मगन.
सारे चाँद डस जायेगें इन राहुवों के,
नियम -यज्ञं में आहुति बन.

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