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क्रान्फर्द नामक एक यूरोपीय लेखक ने लिखा है-
“नैतिकता के उनके नियम उदार हैं : (भारतीयों के बिषय में)
सत्कार और परोपकार उनमे न केवल जोरदार रूप से भरा है बल्कि ,मेरा बिश्वास है की उन्हें कहीं भी उतने ब्यापक रूप से ब्यवहार में नहीं देखा जाता ,जितना हिन्दुओं में .”
यह सोलह आने सच है की भारतीयों में ब्यवहार की जो संकल्पना की जाती है वह पूर्ण रूप से शत-प्रतिशत सही है. इदं नमम का जो भाव शताब्दियों से हमारे नसों में समाया हुआ है उसको किसी दूसरी सभ्यता के कोनो में पाना अति दुर्लभ है.
श्री शशि थरूर जी के संदर्भो में जो पक्ष अति सबल और महत्वपूर्ण है वह है:
(१) सुशिक्षा
(२) योग्य कार्य-निष्पादन का गुर
(३) कुशल बैदेशिक नीति की समझ.
(४) बिदेशो में लम्बे समय से कार्य का अनुभव.
सबको पता है की कम से कम पिछले ३०-३२ सालो से आप भारत से दूर रहे है. जाहिर सी बात है की जिस तरह के संकल्पना यहाँ के राजनीतिक जीवन से की जाती है उससे आप परे रहे. ज्यादा समझने और सीखने का मौका मिलता की तरह-तरह के छोटे छोटे विवादों को मीडिया ने इतना फोकस दे दिया की आप एक के बाद एक विवादों से ही जूझने में लगे रहे. एक चीज समझ में नहीं आती की यह वही कांग्रेस है जिसने भारत में मिस्टर सैम पित्रोदा को लाकर भारत के बौधिक-खजाने में एक कोहनूर की और वृद्धि की थी. तो शशि थरूर जैसे अनुभवी व्यक्ति का सही उपयोग क्यों नहीं कर सकी.
विवाद तो अपनी जगह है. इतने दूर रहकर भी थरूर जी के मन में भारतीय संस्कृति का उजला पक्ष परोपकार और सत्कार बरक़रार रहा. परन्तु पश्चिमी संस्कृति के एक दूसरे पक्ष ने सुनंदा पुष्कर के रूप में पहले पक्ष को दागदार कर दिया.
मैं यह नहीं कहता की सम्बन्ध न रखे जाएँ पर महत्वपूर्ण पदों की गरिमा सबसे पहले है.
दोष किसका है यह अभी जाँच का विषय है.
परन्तु एक योग्य व्यक्ति का सही उपयोग न हो पाना भारत का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा.
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